साम टिव्ही ब्युरो
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है,
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है।
हमें पता है तुम कहीं और के मुसाफिर हो,
हमारा शहर तो बस यूँ ही रास्ते में आया था।
दुःख दे कर सवाल करते हो,
तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो।
उनको देखने से जो आ जाती है मुँह पर रौनक,
वो समझते हैं की बीमार का हाल अच्छा है।
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल की खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।
हम तो फना हो गए उसकी आंखे देखकर गालिब,
न जाने वो आइना कैसे देखते होंगे।
दर्द हो दिल में तो दवा कीजे,
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजे।